'बस यही अपराध में हर बार करता हूँ आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ !' शदी के महान गायक मुकेश माथुर ने जब इस मशहूर गीत को आपनी आवाज से नवाजा था तब उन्होंने शायद ही सोचा रहा होगा की काफी शालों यह गीत फ़िर लोकप्रिय होगा गीत वही है लेकिन आज गीत के माने बदल गए है जब से है कोर्ट का फेसला आया है एक तरफ़ जहा इस फेसले के बाद नाज फौन्डेशन के सदस्यों के चेहरे खुशी से खिल गए है वही इस फेसले के विरोध मै भी काफी सरे लोगों भी है जो यह नही चाहते की हमारे समाज मै जहाँ आज भी सेक्स एजुकेशन को लागु किया जाय या नही इस पर सहमती नही बन पा रही है तो क्या ऐसे आप्रक्रतिक संबंधों को मान्यता मिलनी चाहिए जो की सर्वथा आमनुसिक है ।
नाज फौन्डेशन के सदस्यों का कहना है की हम को भी अपने हिशाब से जीने की आजादी होनी चाहिए तो हम पूछते है की आपका जीना क्या शिर्फ़ सेक्स के लिए ही है ।
प्रकृति ने आपनी रचना मै नर और मादा दो लिंग की रचना की है जो काफी सोच समाज कर की है तो क्या हम नर और नर या मादा मादा के मिलन की केसे कल्पना कर सकते है तथा इसका नजीता भी सोचे की शिवा बीमारी के और क्या निकलता है .मनुष्यों को इस धरती पर सबसे समझदार समझा जाता है क्योंकि उसके पास दिमाग होता है और इस दिमाग का ज्ञान का क्या शिर्फ़ यही उपयोग रह गया है की हम ऐसे रिश्तों का ईजाद करें जो जानवर भी नही अपनाते ।
खेर खुशी की बात ये भी की एक बड़ी जमात इसके किलफ़ इसलिए है की न तो हमारी धार्मिक,सामाजिक और पौराणिक मान्यताएं भी किसी कीमत पर ऐसे रिश्तों को स्वीकार नही कर सकती।
हम आज विकाशशील से विकशित हो रहे है आज हमरे रहन सहन का ढंग बदल गया है याने सीधे शब्दों मै कहें तो हम पश्चिमी संस्करण मै ढलते जा रहे है .विकाश होना अच्छी बात है लेकिन विकाश के नाम पर नैतिक पतन कैसे बर्दाश्त हो।
Tuesday, July 28, 2009
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